वत्स गोत्र – उद्भव एवं विकास का इतिहास
पौराणिक पृष्भूमि
“भ्रिगुं, पुलत्स्यं, पुलहं, क्रतुअंगिरिसं तथा
मरीचिं, दक्षमत्रिंच, वशिष्ठं चैव मानसान्” (विष्णु पुराण 5/7)
भ्रिगु, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि तथा वशिष्ठ – इन नौ मानस पुत्रों को व्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति का कार्य भार सौंपा| कालान्तर में इनकी संख्या बढ़कर 26 तक हो गई और इसके बाद इनकी संख्या 56 हो गई| इन्हीं ऋषियों के नाम से गोत्र का प्रचलन हुआ और इनके वंशज अपने गोत्र ऋषि से संबद्ध हो गए|
हरेक गोत्र में प्रवर, गण और उनके वंशज(व्राह्मण) हुए| कुछ गोत्रों में सुयोग्य गोत्रानुयायी ऋषियों को भी गोत्र वर्धन का अधिकार दिया गया|
नौ मानस पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ भृगु ऋषि गोत्रोत्पन्न वत्स ऋषि को अपने गोत्र नाम से प्रजा वर्धन का अधिकार प्राप्त हुआ| इनके मूल ऋषि भृगु रहे| इनके पांच प्रवर – भार्गव, च्यवन, आप्रवान, और्व और जमदग्नि हुए| मूल ऋषि होने के कारण भृगु ही इनके गण हुए| इनके वंशज(ब्राह्मण) शोनभद्र,(सोनभदरिया), बछ्गोतिया, बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण हुए
लिखित साक्ष्य
छठी शदी ईशा पूर्व महाकवि वाणभट्ट रचित ‘हर्षचरितम्’ के प्रारंभ में महाकवि ने वत्स गोत्र का पौराणिक इतिहास साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है| महाकवि वाणभट्ट के बारे में क्या कहना – “वाणोच्छिष्टम् जगत सर्वम्”| ‘वाण का छोड़ा हुआ जूठन ही समस्त जगत का साहित्य है’|
इस प्रचलित उक्ति से ही वाणभट्ट की विद्वता का पता चल जाता है| वाणभट्ट स्वयं वत्स गोत्रीय थे|
वाणभट्ट के अनुसार एक बार स्वर्ग की देव सभा में दुर्वासा ऋषि उपमन्यु ऋषि के साथ विवाद करते-करते क्रोधवश सामवेद गान करते हुए विस्वर गान (Out of Tune) गाने लगे| इसपर सरस्वती देवी हँस पड़ी| फिर क्या था; दुर्वासा ऋषि उनपर बरस पड़े और शाप दे डाला – ‘दुर्वुद्धे ! दुर्विद्ग्धे ! पापिनि ! जा, अपनी करनी का फल भोग, मर्त्यलोक में पतित होकर बस| स्वर्ग में तेरा स्थान नहीं|
इतना सुनकर सरस्वती देवी विलाप करने लगी| इसपर पितामह व्रह्मा ने दुर्वासा की बड़ी भर्त्सना की|
अनंतर अपनी मानसपुत्री सरस्वती पर द्रवीभूत होकर उससे कहा – ‘जा बेटी’ ! मर्त्यलोक में धैर्य धर कर जा, तेरी सखी सावित्री भी तेरे साथ वहाँ जायेगी| पुत्रमुख दर्शन तक ही तेरा यह शाप रहेगा, तदन्तर तू यहाँ वापस लौट आयेगी|
शापवश सरस्वती मर्त्यलोक में हिरण्यवाह नदी के पश्चिमी किनारे पर स्वर्ग से जा उतरी|
हिरण्यवाह को शोण नद भी कहते है जो आज कल सोन नदी के नाम से विख्यात हैं|
वहाँ की रमणीयता से मुग्ध हो वहीं पर्णकुटी बनाकर सावित्री के साथ रहने लगी|
इस प्रकार कुछ वर्ष व्यतीत हुए|
एक दिन कोलाहल सुन दोनों ने कुटिया के बाहर आकर देखा|
हजार सैनिकों के साथ एक अश्वारोही युवक उधर से गुजर रहा था|
सरस्वती के सौंदर्य पर वह राजकुमार मुग्ध हो गया और यही हालत सरस्वती की भी थी|
वह राजकुमार और कोई नहीं, महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या का पुत्र राजकुमार दधीच था| च्यवनाश्रम शोण नदी के पश्चिमी तट पर दो कोश दूर था| दोनों के निरंतर मिलन स्वरूप प्रेमाग्नि इतनी प्रवल हुई कि दोनों ने गांधर्व विवाह कर लिया और पति-पत्नी रूप जीवन-यापन करने लगे|
जब घनिष्ठता और बढ़ी तो सरस्वती ने अपना परिचय दिया| सरस्वती एक वर्ष से ज्यादा दिन तक साथ रही| फलतः उसने एक पुत्र-रत्न जना| पुत्रमुखदर्शनोपरांत सरस्वती अपने पुत्र को सर्वगुणसंपन्नता का वरदान देकर स्वर्ग वापस लौट गयी| पत्नी वियोगाग्नि-दग्ध राजकुमार दधीचि ने वैराग्य धारण कर लिया| अपने पुत्र को स्वभ्राता-पत्नि अक्षमाला को पालन पोषण के लिए सौंप कर युवावस्था में ही तपश्चर्या के लिए च्यवन कानन में प्रवेश कर गए|
अक्षमाला भी गर्भवती थी| उसे भी एक पुत्र हुआ| सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा “वत्स”| अक्षमाला ने अपना दूध पिलाकर दोनों बालकों का पुत्रवत पालन पोषण किया| एक ही माता के दुग्धपान से दोनों में सहोदर भ्रातृवत सम्बन्ध हो गया|
अपनी माता सरस्वती देवी के वरदान से सारस्वत सभी विद्याओं में निष्णात हो गए और इतनी क्षमता प्राप्त कर ली कि अपना पूरा ज्ञान, कौशल और सारी विद्याएँ अपने भाई वत्स के अंदर अंतर्निहित कर दी| परिणामस्वरूप वत्स भी सरस्वती देवी प्रदत्त सारी विद्याओं में निष्णात हो गए|
वत्स में सर्व विद्या अर्पण कर च्यावानाश्रम के पास ‘प्रीतिकूट’ नामक ग्राम में उन्हें बसाकर सारस्वत भी अपने पिता का अनुशरण कर च्यवन कानन में तपस्या करने चले गए|
युगोपरांत कलियुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने ‘वात्स्यायन’ उपाधि भी रखी|
वात्स्यायन ऋषि रचित ‘कामसूत्र’ जग प्रसिद्ध है|
वत्स वंश में बड़े-बड़े धीर-विज्ञ गृहमुनि जन्मे जो असाधारण विद्वता से पूर्ण थे|
ये किसी और ब्राह्मण की पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करते थे (विवर्जितः जनपंक्त्यः)|
अपना भोजन स्वयं पकाते थे (स्वयंपाकी)|
दान नहीं लेते थे, याचना नहीं करते थे (विधूताध्येषनाः)|
स्पष्टवादी तथा निर्भीक शास्त्रीय व्यवस्था देने के अधिकारी थे| कपट-कुटिलता, शेखी बघारना, छल-छद्म और डींग हांकने को वे निष्क्रिय पापाचार की श्रेणी में गिनते थे| निःष्णात विद्वान, कवि, वाग्मी और नृत्यगीतवाद्य आदि सभी ललित कलाओं में निपुण थे|
कालक्रमेण कलियुग के आने पर वत्स-कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए जिनकी चरणकमलवंदना तत्कालीन गुप्तवंशीय नृपगण करते नहीं अघाते थे :-
“बभूव वात्स्यायन वंश सम्भ्वोद्विजो जगद्गीतगुणोग्रणी सताम|
अनेक गुप्ताचित पादपंकजः कुबेरनामांश इवस्वयंबभूवः||” (कादम्बरी)
कुबेर के चार पुत्र – अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए| पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए जो बड़े महात्मा और ब्राह्मणों में अग्रगण्य थे| अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु,हंस, शुचि आदि हुए जिनमे अष्टम थे चित्रभानु| इसी भाग्यवान चित्रभानु ने राजदेवी नामधन्य अपनी ब्राह्मण धर्मपत्नी के गर्भ से पाया एक पुत्र रत्न जिसका नाम था वाण जिसने वात्स्यायन से बदलकर भट्ट उपाधि रखी और वाणभट्ट बन गए| वाणभट्ट की युवावस्था उछ्रिंखलता, चपलता और इत्वरता (घुमक्कड़ी) से भरी थी|
अंततः वर्षों बाद अपनी जन्मस्थली प्रीतिकूट ग्राम लौट आये| कालक्रम से महाराजा हर्षदेव से संपर्क में आने के बाद उन्होंने ‘हर्षचरित’ की रचना की|
वत्स/वात्स्यायन गोत्र का भौगोलिक स्थान
600 वर्ष ई.पू. जो पौराणिक भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण विभाजन रेखा है, में वत्स प्रदेश अतिमहत्वपूर्ण 16 महाजनपदों में से एक था जो नीचे दिये गए मानचित्र में अच्छी तरह प्रदर्शित है|
वत्स साम्राज्य गंगा यमुना के संगम पर इलाहबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी| पाली भाषा में वत्स को ‘वंश’ और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में ‘वच्छ’ कहा जाता था| यह अर्धमगधी का ही प्रभाव है कि ‘वत्स गोत्रीय’ भूमिहार ब्राह्मण अनंतर में ‘वछगोतिया’ कहलाने लगे| छठी शताब्दी ई.पू. के सीमांकन के अनुसार वत्स जनपद के उत्तर में कोसल, दक्षिण में अवंती, पूरब में काशी और मगध, तथा पश्चिम में मत्स्य प्रदेश था|
बिहार में वत्स गोत्र का इतिहास/स्थान
कालक्रम से वत्स गोत्र का केंद्रीकरण मगध प्रदेश में शोनभद्र के च्यवनाश्रम के चतुर्दिक हो गया क्योंकि इसका प्रादुर्भाव च्यवनकुमार दधीच से जुड़ा हुआ था| मगध प्रदेश में काशी के पूरब और उत्तर से पाटलीपुत्र पर्यंत अंग प्रदेश से पश्चिम तक वत्स गोत्रीय समाज का विस्तार था| सम्प्रति वत्स गोत्र उत्तर प्रदेश के शोनभद्र से लेकर गाजीपुर तक तथा गया-औरंगाबाद में सोन नदी के किनारे से लेकर पटना, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी-गोरखपुर तक फैला हुआ है|
पुरातन कालीन ‘प्रीतिकूट’ ग्राम आज का ‘पीरू’ गांव सिद्ध हो चुका है, (माधुरी पत्रिका 1932 का अंक) जो हिंदू समाज से उपेक्षित हो अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है क्योंकि तत्कालीन प्रीतिकूट आज का ‘पीरू बनतारा’ है|
यह प्राचीन च्यवनाश्रम से पश्चिम करीब चार मील की दूरी पर स्थित है| इसके पास ही 6 मील पूरब बनतारा गांव अवस्थित है| कालक्रम से प्रीतिकूट ‘पीयरू’ और तदन्तर ‘पीरू’ बन गया| च्यवनाश्रम के चतुर्दिक वात्स्यायन ब्राह्मण (वछ्गोतिया, सोनभदरिया) के गांव बहुसंख्यक रूप में पाए जाते हैं|
शोन तटवासी होने के कारण ये सोनभद्र/सोनभदरिया कहलाते हैं|
इस्लामीकरण का इतिहास
मुस्लमान बादशाह खासकर हिंदुओं को जबरदस्ती इस्लाम धर्म अपनाने के लिए दो तरीके अपनाते थे|
एक किसी जुर्म की सजा के बदले और दूसरा जजिया टैक्स नहीं देने के का| जजिया का अर्थ फिरौती Extortion Money रंगदारी, हफ्ता या poll tax है जो गैर मुस्लिमों से उनकी सुरक्षा के बहाने से लिया जाता है| यह प्रथा अभी भी पाकिस्तान में खासकर हिंदुओं के खिलाफ प्रचलित है| पिछले वर्ष अनेक हिंदुओं को इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे अपनी गरीबी के कारण जजिया कर देने में असमर्थ थे| जिन लोगों पर जजिया का नियम लागू होता है उनको जिम्मी “कहा जाता है|
अर्थात सभी गैर मुस्लिम जिम्मी है जजिया की कोई दर निश्चित नहीं की गई थी ताकि मुसलमान मनमाना जजिया वसूल कर सकें| प्रोफेट मुहम्मद ने जजिया टैक्स को कुरान में भी लिखवा दिया ताकि मुस्लमान बादशाह इसे धार्मिक मान्यता के अधीन वसूल कर सके|
बादशाहों ने इस टैक्स से अपना घर भरना, और नहीं देने पर लोगों को मुसलमान बनने पर मजबूर करना शुरू कर दिया|
मुहम्मद की मौत के बाद भी मुस्लिम बादशाहों ने यही नीति अपनाई|
जजिया के धन से गैर मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान करना मकसद था लेकिन मुसलमान बदशाह उस धन को अपने निजी कामों, जैसे अपनी शादियों, हथियार खरीदने, और दावतें करने और ऐश मौज करने में खर्च किया करता था| बीमार, गरीब, और स्त्रियों को भी नहीं छोड़ते थे और जो जजिया नहीं दे सकता था उसकी औरतें उठा लेते थे| यहांतक क़त्ल भी कर देते थे| जजिया तो एक बहाना था|
मुहम्मद लोगों को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर करना चाहता था जैसा मुसलमानों ने भारत में किया| औरंगजेब के शासनकाल में पीरू बनतारा आदि गाँवों के वछ्गोतिया ब्राह्मण का 1700-1712 के बीच इस्लामीकरण इसी परिप्रेक्ष्य में हुआ| पीरू के पठान एक समय बम्भई ग्रामवासियों के नजदीकी गोतिया माने जाते थे जिसका साक्ष्य आज भी किसी न किसी रूप में उपलब्ध है|
बम्भई और पीरू के बीच तो भाईचारा (भयियारो) अभी तक चल रहा है|
विवाह में शाकद्वीपीय ब्राह्मण पुरोहित भी आशीर्वाद देने और दक्षिणा लेने जाते हैं और उन्हें वार्षिक वृति भी मिलती है और विवाह में पांच सैकड़ा नेग भी|
औरंगजेब की मृत्यु (1707) तक और बहादुर शाह के जजिया टैक्स देने के फरमान पर केयालगढ़पति ज़मींदार वछ्गोतिया/सोनभदरिया भूमिहार ब्राह्मण अड़ गए|
यह समझा जा सकता हैं कि जजिया कर नहीं देने का निश्चय कितना साहसी और खतरनाक निर्णय था| यह सरकार के खिलाफ बगावत थी जो इने-गिने जान जोखिम में डालने वाले लोग ही कर सकते थे| इस बगावत के चलते केयालगढ़ को ध्वस्त कर दिया गया और बागियों को पिघलते लाह में साटकर मार दिया गया| जबरन लोगों को मुसलमान बनाना शुरू कर दिया गया|
केयालगढ़ी पूर्वज कमलनयन सिंह ने बाकी परिवार को धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए एक योजना बनाई| उन्होंने निश्चय किया कि वे धर्म परिवर्तन कर लेंगे और अपनी जमींदारी परिवार के लोगों में बाँट देंगे ताकि वे हिंदू बने रहें| इस योजनानुसार अपने भाई के साथ दिल्ली गए और धर्म बदलकर एक भाई मुस्लिम शाहजादी से शादी कर दिल्ली में ही रह गए|
कमलनयन सिंह उर्फ अबुल नसीर खान धर्म परिवर्तन के बाद वापस लौट जमींदारी बाकी परिवार में बांटकर डिहरी गांव अपनी बहन को खोइंछा में देकर जिंदगीभर बम्भई में ही रहे| उनके चचेरे भाईओं नें उन्हें जिंदगी भर अपने साथ ही रखा| वहाँ एक कुआँ भी बनवाया| उनकी कब्र बाबू राम कृष्ण सिंह के हाते में अभी भी दृष्टिगोचर होती है जहां कृतज्ञतावश सब वछ्गोतिया परिवार अभी भी पूजते हैं|
उनके दो लड़के हुए – नजाकत चौधरी और मुबारक चौधरी| उनलोगों को धोबनी मौजा मिला|
लेकिन बेलहरा के जमींदार ब्राह्मण यशवंत सिंह के बहुत उपद्रव करने पर उनके चचेरे भाईओं ने कहा कि तब आप पुरानी डीह प्रीतपुर में जो चिरागी महल है, जाकर बस जाईये| नजाकत चौधरी प्रीतपुर में पुराने गढ़ पर और मुबारक चौधरी बनतारा में जा बसे| वहाँ उनके स्मारक की पूजा लोग अभी तक करते हैं| जब लोग अमझर के पीर को पूजने लगे तब प्रीतपुर का नाम बदलकर ‘कमलनयन-अबुलनसीरपुर पीरु’ रख दिया गया| खतियान में अभी भी यही चला आ रहा है| धीरे-धीरे लोग प्रीतपुर नाम को भूलते गए और पीरू का नाम प्रचलित हो गया| चूंकि पीरू और बनतारा दोनों में में एक ही बाप के दो बेटों की औलादें बस रही हैं इसलिए दोनों गांवों को एक ही साथ बोलते हैं ‘पीरू बनतारा'|
वत्स गोत्रीय/वात्स्यायनों के मुख्य दो ही गढ़ थे – केयालगढ़ और नोनारगढ़
कारण पता नहीं लेकिन नोनारगढ़ी सोनभदरिया/बछ्गोतिया ब्राह्मण अपने को केयालगढ़ी से श्रेष्ठ मानते हैं| ये दोनों गढ़ भी आजकल ध्वंसावशेष रूप में च्यवनाश्रम (देकुड़/देवकुंड/देवकुल)के आस-पास ही दो तीन कोस की दूरी पर हैं|
सोनभदरिया वत्स गोत्रीय लोगों के पूर्वजों के ही दो-दो देवमंदिर – देव का सूर्यमंदिर और देवकुल का शिवमंदिर देश में विख्यात हैं| देव के मंदिर के सरदार पंडा अभी तक सोनभदरिया/बछ्गोतिया ही होते चले आ रहे हैं|
शोनभद्र नदी के किनारे बसे रहने वाले वत्स गोत्रीय भूमिहार शोनभद्र (सोनभदरिया) कहलाये और अर्धमगधी भाषाभासी वत्सगोत्रीय बछगोतिया बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण कहलाये लेकिन दोनों का मूल उद्गम स्थल केयालगढ़ या नोनारगढ़ ही था|
वत्स प्रतिज्ञा
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वत्स अपने वादे और वचनबद्धता के लिए विख्यात थे|
अपनी वचनबद्धता कायम रहे इसके लिए सुविख्यात वत्स सम्राट ‘आदर्श द्वितीय’ ने “वत्स-प्रतिज्ञा” कि प्रथा आरंभ की थी| यह एक शपथ के रूप में ली जाती थी| वत्स महाजनपद के ह्रास के साथ ही वत्स प्रतिज्ञा संस्कृति का भी ह्रास हो गया|
आदित्य तृतीय की पहली लिखित प्रतिज्ञा निम्नलिखित है:-
“आर्य जातीय वत्स गोत्रोत्पन्न मै ‘आदित्य त्रितीय’ 206वीं शपथ लेता हूँ कि मैं अपनी मृत्यु तक प्रजा की रक्षा तबतक करूँगा जबतक मेरे कुल-गोत्र की सुरक्षा प्रभावित न हो”|
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वत्स गोत्र में अपने कुल-गोत्र की रक्षा की भावना सर्वोपरी थी|
अन्य प्रान्तों में वत्स गोत्रीय समुदायों की उपाधियाँ
• बालिगा
• भागवत
• भैरव
• भट्ट
• दाबोलकर
• गांगल
• गार्गेकर
• घाग्रेकर
• घाटे
• गोरे
• गोवित्रिकर
• हरे
• हीरे
• होले
• जोशी
• काकेत्कर
• काले
• मल्शे
• मल्ल्या
• महालक्ष्मी
• नागेश
• सखदेव
• शिनॉय
• सोहोनी
• सोवानी
• सुग्वेलकर
• गादे
• रामनाथ
• शंथेरी
• कामाक्षी
600वीं शदी ई.पू. के सोलह महाजनपद
हालाँकि 600वीं शदी ई.पू. के जनपदों कि संख्या अठारह थी परन्तु महाजनपदों में निम्नलिखित सोलह की ही गणना होती थी (चेति और सूरसेन महाजनपद की श्रेणी में नहीं थे) :-
1. अंग
2. कौशल
3. मल्ल
4. काशी
5. वत्स
6. मगध
7. विज्जी
8. विदेह
9. कुरु
10. पांचाल
11. मत्स्य
12. अस्मक
13. अवंती
14. कुंतल
15. गांधार
16. कम्बोज
अन्य जातियों में वत्स गोत्र
हालांकि ब्राह्मणों (भूमिहार ब्राह्मण सम्मिलित) के अलावा अन्य जातियों में गोत्र प्रथा अनिवार्य नहीं है फिर भी कतिपय प्रमुख जातियों में गोत्र परंपरा देखी जाती है इनके गोत्र, 'गोत्र-ऋषि उत्पन्न' नहीं वल्कि गोत्र-आश्रम आधारित हैं अर्थात जिस ऋषि आश्रम में वे संलग्न रहे उन्होंने उसी ऋषि-गोत्र को अपना लिया|
इसी सिद्धांत पर कुछ क्षत्रिय परिवारों में वत्स गोत्र पाया जाता है| यही सिद्धांत अन्य कुछ जातियों में भी प्रचलित है| इस तरह वत्स गोत्र अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो दिन-दूनी और रात-चौगुनी विकास पथ पर अग्रसर होता चला जा रहा है|
मै एक विनीत वत्स गोत्रीय सोनभद्रीय सदस्य इसके सतत उत्तरोत्तर उन्नति की कामना करता हूँ|
ईश्वर हमें सद्बुधि दे और सदा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे|
"तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय"
ईश्वर हमें अंधकार(अज्ञान) से प्रकाश(ज्ञान) की ओर एवं असत्य से सत्य की ओर ले चले|
ले.कर्नल विद्या शर्मा, (से.नि)
पौराणिक पृष्भूमि
“भ्रिगुं, पुलत्स्यं, पुलहं, क्रतुअंगिरिसं तथा
मरीचिं, दक्षमत्रिंच, वशिष्ठं चैव मानसान्” (विष्णु पुराण 5/7)
भ्रिगु, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि तथा वशिष्ठ – इन नौ मानस पुत्रों को व्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति का कार्य भार सौंपा| कालान्तर में इनकी संख्या बढ़कर 26 तक हो गई और इसके बाद इनकी संख्या 56 हो गई| इन्हीं ऋषियों के नाम से गोत्र का प्रचलन हुआ और इनके वंशज अपने गोत्र ऋषि से संबद्ध हो गए|
हरेक गोत्र में प्रवर, गण और उनके वंशज(व्राह्मण) हुए| कुछ गोत्रों में सुयोग्य गोत्रानुयायी ऋषियों को भी गोत्र वर्धन का अधिकार दिया गया|
नौ मानस पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ भृगु ऋषि गोत्रोत्पन्न वत्स ऋषि को अपने गोत्र नाम से प्रजा वर्धन का अधिकार प्राप्त हुआ| इनके मूल ऋषि भृगु रहे| इनके पांच प्रवर – भार्गव, च्यवन, आप्रवान, और्व और जमदग्नि हुए| मूल ऋषि होने के कारण भृगु ही इनके गण हुए| इनके वंशज(ब्राह्मण) शोनभद्र,(सोनभदरिया), बछ्गोतिया, बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण हुए
लिखित साक्ष्य
छठी शदी ईशा पूर्व महाकवि वाणभट्ट रचित ‘हर्षचरितम्’ के प्रारंभ में महाकवि ने वत्स गोत्र का पौराणिक इतिहास साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है| महाकवि वाणभट्ट के बारे में क्या कहना – “वाणोच्छिष्टम् जगत सर्वम्”| ‘वाण का छोड़ा हुआ जूठन ही समस्त जगत का साहित्य है’|
इस प्रचलित उक्ति से ही वाणभट्ट की विद्वता का पता चल जाता है| वाणभट्ट स्वयं वत्स गोत्रीय थे|
वाणभट्ट के अनुसार एक बार स्वर्ग की देव सभा में दुर्वासा ऋषि उपमन्यु ऋषि के साथ विवाद करते-करते क्रोधवश सामवेद गान करते हुए विस्वर गान (Out of Tune) गाने लगे| इसपर सरस्वती देवी हँस पड़ी| फिर क्या था; दुर्वासा ऋषि उनपर बरस पड़े और शाप दे डाला – ‘दुर्वुद्धे ! दुर्विद्ग्धे ! पापिनि ! जा, अपनी करनी का फल भोग, मर्त्यलोक में पतित होकर बस| स्वर्ग में तेरा स्थान नहीं|
इतना सुनकर सरस्वती देवी विलाप करने लगी| इसपर पितामह व्रह्मा ने दुर्वासा की बड़ी भर्त्सना की|
अनंतर अपनी मानसपुत्री सरस्वती पर द्रवीभूत होकर उससे कहा – ‘जा बेटी’ ! मर्त्यलोक में धैर्य धर कर जा, तेरी सखी सावित्री भी तेरे साथ वहाँ जायेगी| पुत्रमुख दर्शन तक ही तेरा यह शाप रहेगा, तदन्तर तू यहाँ वापस लौट आयेगी|
शापवश सरस्वती मर्त्यलोक में हिरण्यवाह नदी के पश्चिमी किनारे पर स्वर्ग से जा उतरी|
हिरण्यवाह को शोण नद भी कहते है जो आज कल सोन नदी के नाम से विख्यात हैं|
वहाँ की रमणीयता से मुग्ध हो वहीं पर्णकुटी बनाकर सावित्री के साथ रहने लगी|
इस प्रकार कुछ वर्ष व्यतीत हुए|
एक दिन कोलाहल सुन दोनों ने कुटिया के बाहर आकर देखा|
हजार सैनिकों के साथ एक अश्वारोही युवक उधर से गुजर रहा था|
सरस्वती के सौंदर्य पर वह राजकुमार मुग्ध हो गया और यही हालत सरस्वती की भी थी|
वह राजकुमार और कोई नहीं, महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या का पुत्र राजकुमार दधीच था| च्यवनाश्रम शोण नदी के पश्चिमी तट पर दो कोश दूर था| दोनों के निरंतर मिलन स्वरूप प्रेमाग्नि इतनी प्रवल हुई कि दोनों ने गांधर्व विवाह कर लिया और पति-पत्नी रूप जीवन-यापन करने लगे|
जब घनिष्ठता और बढ़ी तो सरस्वती ने अपना परिचय दिया| सरस्वती एक वर्ष से ज्यादा दिन तक साथ रही| फलतः उसने एक पुत्र-रत्न जना| पुत्रमुखदर्शनोपरांत सरस्वती अपने पुत्र को सर्वगुणसंपन्नता का वरदान देकर स्वर्ग वापस लौट गयी| पत्नी वियोगाग्नि-दग्ध राजकुमार दधीचि ने वैराग्य धारण कर लिया| अपने पुत्र को स्वभ्राता-पत्नि अक्षमाला को पालन पोषण के लिए सौंप कर युवावस्था में ही तपश्चर्या के लिए च्यवन कानन में प्रवेश कर गए|
अक्षमाला भी गर्भवती थी| उसे भी एक पुत्र हुआ| सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा “वत्स”| अक्षमाला ने अपना दूध पिलाकर दोनों बालकों का पुत्रवत पालन पोषण किया| एक ही माता के दुग्धपान से दोनों में सहोदर भ्रातृवत सम्बन्ध हो गया|
अपनी माता सरस्वती देवी के वरदान से सारस्वत सभी विद्याओं में निष्णात हो गए और इतनी क्षमता प्राप्त कर ली कि अपना पूरा ज्ञान, कौशल और सारी विद्याएँ अपने भाई वत्स के अंदर अंतर्निहित कर दी| परिणामस्वरूप वत्स भी सरस्वती देवी प्रदत्त सारी विद्याओं में निष्णात हो गए|
वत्स में सर्व विद्या अर्पण कर च्यावानाश्रम के पास ‘प्रीतिकूट’ नामक ग्राम में उन्हें बसाकर सारस्वत भी अपने पिता का अनुशरण कर च्यवन कानन में तपस्या करने चले गए|
युगोपरांत कलियुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने ‘वात्स्यायन’ उपाधि भी रखी|
वात्स्यायन ऋषि रचित ‘कामसूत्र’ जग प्रसिद्ध है|
वत्स वंश में बड़े-बड़े धीर-विज्ञ गृहमुनि जन्मे जो असाधारण विद्वता से पूर्ण थे|
ये किसी और ब्राह्मण की पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करते थे (विवर्जितः जनपंक्त्यः)|
अपना भोजन स्वयं पकाते थे (स्वयंपाकी)|
दान नहीं लेते थे, याचना नहीं करते थे (विधूताध्येषनाः)|
स्पष्टवादी तथा निर्भीक शास्त्रीय व्यवस्था देने के अधिकारी थे| कपट-कुटिलता, शेखी बघारना, छल-छद्म और डींग हांकने को वे निष्क्रिय पापाचार की श्रेणी में गिनते थे| निःष्णात विद्वान, कवि, वाग्मी और नृत्यगीतवाद्य आदि सभी ललित कलाओं में निपुण थे|
कालक्रमेण कलियुग के आने पर वत्स-कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए जिनकी चरणकमलवंदना तत्कालीन गुप्तवंशीय नृपगण करते नहीं अघाते थे :-
“बभूव वात्स्यायन वंश सम्भ्वोद्विजो जगद्गीतगुणोग्रणी सताम|
अनेक गुप्ताचित पादपंकजः कुबेरनामांश इवस्वयंबभूवः||” (कादम्बरी)
कुबेर के चार पुत्र – अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए| पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए जो बड़े महात्मा और ब्राह्मणों में अग्रगण्य थे| अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु,हंस, शुचि आदि हुए जिनमे अष्टम थे चित्रभानु| इसी भाग्यवान चित्रभानु ने राजदेवी नामधन्य अपनी ब्राह्मण धर्मपत्नी के गर्भ से पाया एक पुत्र रत्न जिसका नाम था वाण जिसने वात्स्यायन से बदलकर भट्ट उपाधि रखी और वाणभट्ट बन गए| वाणभट्ट की युवावस्था उछ्रिंखलता, चपलता और इत्वरता (घुमक्कड़ी) से भरी थी|
अंततः वर्षों बाद अपनी जन्मस्थली प्रीतिकूट ग्राम लौट आये| कालक्रम से महाराजा हर्षदेव से संपर्क में आने के बाद उन्होंने ‘हर्षचरित’ की रचना की|
वत्स/वात्स्यायन गोत्र का भौगोलिक स्थान
600 वर्ष ई.पू. जो पौराणिक भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण विभाजन रेखा है, में वत्स प्रदेश अतिमहत्वपूर्ण 16 महाजनपदों में से एक था जो नीचे दिये गए मानचित्र में अच्छी तरह प्रदर्शित है|
वत्स साम्राज्य गंगा यमुना के संगम पर इलाहबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी| पाली भाषा में वत्स को ‘वंश’ और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में ‘वच्छ’ कहा जाता था| यह अर्धमगधी का ही प्रभाव है कि ‘वत्स गोत्रीय’ भूमिहार ब्राह्मण अनंतर में ‘वछगोतिया’ कहलाने लगे| छठी शताब्दी ई.पू. के सीमांकन के अनुसार वत्स जनपद के उत्तर में कोसल, दक्षिण में अवंती, पूरब में काशी और मगध, तथा पश्चिम में मत्स्य प्रदेश था|
बिहार में वत्स गोत्र का इतिहास/स्थान
कालक्रम से वत्स गोत्र का केंद्रीकरण मगध प्रदेश में शोनभद्र के च्यवनाश्रम के चतुर्दिक हो गया क्योंकि इसका प्रादुर्भाव च्यवनकुमार दधीच से जुड़ा हुआ था| मगध प्रदेश में काशी के पूरब और उत्तर से पाटलीपुत्र पर्यंत अंग प्रदेश से पश्चिम तक वत्स गोत्रीय समाज का विस्तार था| सम्प्रति वत्स गोत्र उत्तर प्रदेश के शोनभद्र से लेकर गाजीपुर तक तथा गया-औरंगाबाद में सोन नदी के किनारे से लेकर पटना, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी-गोरखपुर तक फैला हुआ है|
पुरातन कालीन ‘प्रीतिकूट’ ग्राम आज का ‘पीरू’ गांव सिद्ध हो चुका है, (माधुरी पत्रिका 1932 का अंक) जो हिंदू समाज से उपेक्षित हो अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है क्योंकि तत्कालीन प्रीतिकूट आज का ‘पीरू बनतारा’ है|
यह प्राचीन च्यवनाश्रम से पश्चिम करीब चार मील की दूरी पर स्थित है| इसके पास ही 6 मील पूरब बनतारा गांव अवस्थित है| कालक्रम से प्रीतिकूट ‘पीयरू’ और तदन्तर ‘पीरू’ बन गया| च्यवनाश्रम के चतुर्दिक वात्स्यायन ब्राह्मण (वछ्गोतिया, सोनभदरिया) के गांव बहुसंख्यक रूप में पाए जाते हैं|
शोन तटवासी होने के कारण ये सोनभद्र/सोनभदरिया कहलाते हैं|
इस्लामीकरण का इतिहास
मुस्लमान बादशाह खासकर हिंदुओं को जबरदस्ती इस्लाम धर्म अपनाने के लिए दो तरीके अपनाते थे|
एक किसी जुर्म की सजा के बदले और दूसरा जजिया टैक्स नहीं देने के का| जजिया का अर्थ फिरौती Extortion Money रंगदारी, हफ्ता या poll tax है जो गैर मुस्लिमों से उनकी सुरक्षा के बहाने से लिया जाता है| यह प्रथा अभी भी पाकिस्तान में खासकर हिंदुओं के खिलाफ प्रचलित है| पिछले वर्ष अनेक हिंदुओं को इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे अपनी गरीबी के कारण जजिया कर देने में असमर्थ थे| जिन लोगों पर जजिया का नियम लागू होता है उनको जिम्मी “कहा जाता है|
अर्थात सभी गैर मुस्लिम जिम्मी है जजिया की कोई दर निश्चित नहीं की गई थी ताकि मुसलमान मनमाना जजिया वसूल कर सकें| प्रोफेट मुहम्मद ने जजिया टैक्स को कुरान में भी लिखवा दिया ताकि मुस्लमान बादशाह इसे धार्मिक मान्यता के अधीन वसूल कर सके|
बादशाहों ने इस टैक्स से अपना घर भरना, और नहीं देने पर लोगों को मुसलमान बनने पर मजबूर करना शुरू कर दिया|
मुहम्मद की मौत के बाद भी मुस्लिम बादशाहों ने यही नीति अपनाई|
जजिया के धन से गैर मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान करना मकसद था लेकिन मुसलमान बदशाह उस धन को अपने निजी कामों, जैसे अपनी शादियों, हथियार खरीदने, और दावतें करने और ऐश मौज करने में खर्च किया करता था| बीमार, गरीब, और स्त्रियों को भी नहीं छोड़ते थे और जो जजिया नहीं दे सकता था उसकी औरतें उठा लेते थे| यहांतक क़त्ल भी कर देते थे| जजिया तो एक बहाना था|
मुहम्मद लोगों को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर करना चाहता था जैसा मुसलमानों ने भारत में किया| औरंगजेब के शासनकाल में पीरू बनतारा आदि गाँवों के वछ्गोतिया ब्राह्मण का 1700-1712 के बीच इस्लामीकरण इसी परिप्रेक्ष्य में हुआ| पीरू के पठान एक समय बम्भई ग्रामवासियों के नजदीकी गोतिया माने जाते थे जिसका साक्ष्य आज भी किसी न किसी रूप में उपलब्ध है|
बम्भई और पीरू के बीच तो भाईचारा (भयियारो) अभी तक चल रहा है|
विवाह में शाकद्वीपीय ब्राह्मण पुरोहित भी आशीर्वाद देने और दक्षिणा लेने जाते हैं और उन्हें वार्षिक वृति भी मिलती है और विवाह में पांच सैकड़ा नेग भी|
औरंगजेब की मृत्यु (1707) तक और बहादुर शाह के जजिया टैक्स देने के फरमान पर केयालगढ़पति ज़मींदार वछ्गोतिया/सोनभदरिया भूमिहार ब्राह्मण अड़ गए|
यह समझा जा सकता हैं कि जजिया कर नहीं देने का निश्चय कितना साहसी और खतरनाक निर्णय था| यह सरकार के खिलाफ बगावत थी जो इने-गिने जान जोखिम में डालने वाले लोग ही कर सकते थे| इस बगावत के चलते केयालगढ़ को ध्वस्त कर दिया गया और बागियों को पिघलते लाह में साटकर मार दिया गया| जबरन लोगों को मुसलमान बनाना शुरू कर दिया गया|
केयालगढ़ी पूर्वज कमलनयन सिंह ने बाकी परिवार को धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए एक योजना बनाई| उन्होंने निश्चय किया कि वे धर्म परिवर्तन कर लेंगे और अपनी जमींदारी परिवार के लोगों में बाँट देंगे ताकि वे हिंदू बने रहें| इस योजनानुसार अपने भाई के साथ दिल्ली गए और धर्म बदलकर एक भाई मुस्लिम शाहजादी से शादी कर दिल्ली में ही रह गए|
कमलनयन सिंह उर्फ अबुल नसीर खान धर्म परिवर्तन के बाद वापस लौट जमींदारी बाकी परिवार में बांटकर डिहरी गांव अपनी बहन को खोइंछा में देकर जिंदगीभर बम्भई में ही रहे| उनके चचेरे भाईओं नें उन्हें जिंदगी भर अपने साथ ही रखा| वहाँ एक कुआँ भी बनवाया| उनकी कब्र बाबू राम कृष्ण सिंह के हाते में अभी भी दृष्टिगोचर होती है जहां कृतज्ञतावश सब वछ्गोतिया परिवार अभी भी पूजते हैं|
उनके दो लड़के हुए – नजाकत चौधरी और मुबारक चौधरी| उनलोगों को धोबनी मौजा मिला|
लेकिन बेलहरा के जमींदार ब्राह्मण यशवंत सिंह के बहुत उपद्रव करने पर उनके चचेरे भाईओं ने कहा कि तब आप पुरानी डीह प्रीतपुर में जो चिरागी महल है, जाकर बस जाईये| नजाकत चौधरी प्रीतपुर में पुराने गढ़ पर और मुबारक चौधरी बनतारा में जा बसे| वहाँ उनके स्मारक की पूजा लोग अभी तक करते हैं| जब लोग अमझर के पीर को पूजने लगे तब प्रीतपुर का नाम बदलकर ‘कमलनयन-अबुलनसीरपुर पीरु’ रख दिया गया| खतियान में अभी भी यही चला आ रहा है| धीरे-धीरे लोग प्रीतपुर नाम को भूलते गए और पीरू का नाम प्रचलित हो गया| चूंकि पीरू और बनतारा दोनों में में एक ही बाप के दो बेटों की औलादें बस रही हैं इसलिए दोनों गांवों को एक ही साथ बोलते हैं ‘पीरू बनतारा'|
वत्स गोत्रीय/वात्स्यायनों के मुख्य दो ही गढ़ थे – केयालगढ़ और नोनारगढ़
कारण पता नहीं लेकिन नोनारगढ़ी सोनभदरिया/बछ्गोतिया ब्राह्मण अपने को केयालगढ़ी से श्रेष्ठ मानते हैं| ये दोनों गढ़ भी आजकल ध्वंसावशेष रूप में च्यवनाश्रम (देकुड़/देवकुंड/देवकुल)के आस-पास ही दो तीन कोस की दूरी पर हैं|
सोनभदरिया वत्स गोत्रीय लोगों के पूर्वजों के ही दो-दो देवमंदिर – देव का सूर्यमंदिर और देवकुल का शिवमंदिर देश में विख्यात हैं| देव के मंदिर के सरदार पंडा अभी तक सोनभदरिया/बछ्गोतिया ही होते चले आ रहे हैं|
शोनभद्र नदी के किनारे बसे रहने वाले वत्स गोत्रीय भूमिहार शोनभद्र (सोनभदरिया) कहलाये और अर्धमगधी भाषाभासी वत्सगोत्रीय बछगोतिया बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण कहलाये लेकिन दोनों का मूल उद्गम स्थल केयालगढ़ या नोनारगढ़ ही था|
वत्स प्रतिज्ञा
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वत्स अपने वादे और वचनबद्धता के लिए विख्यात थे|
अपनी वचनबद्धता कायम रहे इसके लिए सुविख्यात वत्स सम्राट ‘आदर्श द्वितीय’ ने “वत्स-प्रतिज्ञा” कि प्रथा आरंभ की थी| यह एक शपथ के रूप में ली जाती थी| वत्स महाजनपद के ह्रास के साथ ही वत्स प्रतिज्ञा संस्कृति का भी ह्रास हो गया|
आदित्य तृतीय की पहली लिखित प्रतिज्ञा निम्नलिखित है:-
“आर्य जातीय वत्स गोत्रोत्पन्न मै ‘आदित्य त्रितीय’ 206वीं शपथ लेता हूँ कि मैं अपनी मृत्यु तक प्रजा की रक्षा तबतक करूँगा जबतक मेरे कुल-गोत्र की सुरक्षा प्रभावित न हो”|
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वत्स गोत्र में अपने कुल-गोत्र की रक्षा की भावना सर्वोपरी थी|
अन्य प्रान्तों में वत्स गोत्रीय समुदायों की उपाधियाँ
• बालिगा
• भागवत
• भैरव
• भट्ट
• दाबोलकर
• गांगल
• गार्गेकर
• घाग्रेकर
• घाटे
• गोरे
• गोवित्रिकर
• हरे
• हीरे
• होले
• जोशी
• काकेत्कर
• काले
• मल्शे
• मल्ल्या
• महालक्ष्मी
• नागेश
• सखदेव
• शिनॉय
• सोहोनी
• सोवानी
• सुग्वेलकर
• गादे
• रामनाथ
• शंथेरी
• कामाक्षी
600वीं शदी ई.पू. के सोलह महाजनपद
हालाँकि 600वीं शदी ई.पू. के जनपदों कि संख्या अठारह थी परन्तु महाजनपदों में निम्नलिखित सोलह की ही गणना होती थी (चेति और सूरसेन महाजनपद की श्रेणी में नहीं थे) :-
1. अंग
2. कौशल
3. मल्ल
4. काशी
5. वत्स
6. मगध
7. विज्जी
8. विदेह
9. कुरु
10. पांचाल
11. मत्स्य
12. अस्मक
13. अवंती
14. कुंतल
15. गांधार
16. कम्बोज
अन्य जातियों में वत्स गोत्र
हालांकि ब्राह्मणों (भूमिहार ब्राह्मण सम्मिलित) के अलावा अन्य जातियों में गोत्र प्रथा अनिवार्य नहीं है फिर भी कतिपय प्रमुख जातियों में गोत्र परंपरा देखी जाती है इनके गोत्र, 'गोत्र-ऋषि उत्पन्न' नहीं वल्कि गोत्र-आश्रम आधारित हैं अर्थात जिस ऋषि आश्रम में वे संलग्न रहे उन्होंने उसी ऋषि-गोत्र को अपना लिया|
इसी सिद्धांत पर कुछ क्षत्रिय परिवारों में वत्स गोत्र पाया जाता है| यही सिद्धांत अन्य कुछ जातियों में भी प्रचलित है| इस तरह वत्स गोत्र अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो दिन-दूनी और रात-चौगुनी विकास पथ पर अग्रसर होता चला जा रहा है|
मै एक विनीत वत्स गोत्रीय सोनभद्रीय सदस्य इसके सतत उत्तरोत्तर उन्नति की कामना करता हूँ|
ईश्वर हमें सद्बुधि दे और सदा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे|
"तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय"
ईश्वर हमें अंधकार(अज्ञान) से प्रकाश(ज्ञान) की ओर एवं असत्य से सत्य की ओर ले चले|
ले.कर्नल विद्या शर्मा, (से.नि)
gyanvardhak jankari ke liye sadar dhanyabad
ReplyDeletegyanvardhak jankari ke liye sadar dhanyabad
ReplyDeletegyanvardhak jankari ke liye sadar dhanyabad
ReplyDeleteRamesh Kr Chaube Ji,
DeleteThank you for going through my post. Sorry for the delayed reply as facebook drove me towards itself.
कर्नाटक के गोकर्ण तीर्थ क्षेत्र मेभी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण राहते है उनके पूर्वज उत्तर भारत से आये है इतनी जानकारी मिलती है
ReplyDeleteआप बिलकुल ठीक कह रहे हैं डा. विजय जी|
Deleteधन्यवाद
धन्यवाद, आप ने बहुत ही ज्ञानप्रद सामग्री उपलब्ध कराई हैI
ReplyDeleteआपको अच्छा लगा यह जानकर प्रसन्नता हुई|
Deleteधन्यवाद
पतिहा ब्राह्मण कौन है sir और इनका गोत्र वत्स है क्या
Deletevery very thank for you research and share.
ReplyDeleteGrateful to you for the appreciation.
DeleteThanks.
sir my real name is harshdeep dubey and my gotra also a vats according to my senior members and right now i live with whole faimly at raigarh chhattishgarh before 150 or more year ago my granfathers of granfather of father comes here from allahabaad as per information given by may bade pitaji he is now 80yrs old अन्य प्रान्तों में वत्स गोत्रीय समुदायों की उपाधियाँ means surname se hai kya if it is so we not from vats, i know it is very poor question, but is this right?
ReplyDeletevery very thank for you research and share
ReplyDeletesir nice information. very informative. do write on origin of mehandiya village and origion of temple madhushrawa, famous shiva temple
ReplyDeleteThanks for providing wholistic information in one article. However, it may be added that people of Korpal got of Punjabi Saraswat Brahmin also refer themselves as Vats, Vatsa or even Bachchas or Vachchas.
ReplyDeleteMai maithil Brahman hun,aur Mera surname "JHA" tatha Mai bhi vats gotriya Hun.parantu aapke vrittant me vatsa gotriya ka mithila se sambandh nahi batata gya hai.
ReplyDeleteKripaya uttar den.
Mai maithil Brahman hun,aur Mera surname "JHA" tatha Mai bhi vats gotriya Hun.parantu aapke vrittant me vatsa gotriya ka mithila se sambandh nahi batata gya hai.
ReplyDeleteKripaya uttar den.
Nice research Sir..
ReplyDeleteMujhe mere purwajo ke bare me aapne btaya mujhe khusi hui
ReplyDeleteThnx
ReplyDeleteAap ne mughe Gyan vardhak jaan kariya di..humara purana pariwar azad poonch j&k state ke paandhaa cast ke brahmin sikh sardar he..hamara gotre....shirivats he Jo ki shiri vats rishimuni ji ke vanshaj darshata he...Haridwar (uttrakhand state) ke) pande pt.ghasi ram ji ke pote pt.ji hamare ko Surat, Bombay,up,bihar se azad jammu kashmir akhand bharat ke samay va ab india ka darshate he vanshawali dairy ke adhaar pr..Uttrakhand me paandhaa,pandha,ko upadyay likhte he etihaas kaar...Shiri guru nanak dev ji Jagat guru ji (bedi Kul me janm Lene wale) ko Shiri pandit gopal paandhaa ji ke pass padai education ke liye bheja tha.jammu kashmir,uttrakhand,delhi me Hindu va sikh paandhaa gotre shiri vatse ke log ..rahte he....hamare jammu ke kuch pariwaro.mujjafrabadi(azad jammu kashmir)ab pakistanme kahte the...jb raja badshah shayad orangjeb ne lagan,zaziyakar tax lagaya to hamare purvajo ne bagawat or di or poonch ke dharam shaal area ko se mujjafrabaad me saran li..jb wapis aay to unhe mujjafarabadi bola gaya..late dada makhan singh mujaffrabadi satwari Ki jubani,
ReplyDelete...hamara purana niwas troti dharam shaal poonch india se 6 km dur
Duri pr he azad jammy & kashmir me ..batate he ki troti dharam shaal village ko basane wale hamare for father Dada nidhaan singh paandha ji ko chhoti sarkaar ka d khitaab mila that. Dada daan singh tamby wale lahor univercity se pd ke aay to tambi .chust pajama daal ke aay to unhe tambiwala kaha gaya..dada nand singh ji argi nawis poonch cort raja hari singh dogra raja va azad Hindustan 1940 me Apna residance baba chuke the.(((late dada ishar singh paandhaa ji gandhi nagar jammu,dr.surjit Singh paandhaa gandhi nagar jammu,dr.Manmohan singh paandhaa ji chairman contolmant board ranibag,Chathha airport jammu,late sardar gurbax singh paandhaa s/o dada nand singh ji tabiwala -ex army man 1948-1964 .16 years service (sant ji) 8th milatia bataliyan ab j&k light infantry..jkli..56 apo. Va 1966-67 se dist nainital (udham singh nagar) uttrakhand Ki jubani kahani.. Mere vidwaa nana jee bhai labbu ram jee sharma ne suthrya di bawali,kue,kai Dharm Ethan,va vidhyalay khulway..hamari nano ji inter collage Ki prdhana adhyapak va atyant dharmik parvarti Ki thi.bhai labbu ram ji dina naath jee ,Jo Shiri gurugrath sahib,Shiri Geeta jee ,pavitre kuran,urdu ,arbi farci ,ke gyata unki sikhi sewki aaj bhi jammu va poonch ke village va kai city me he unke vanshaj ved parkash ji va deepak sharma ji he jo bisnessman va farmar he..bhagwan Parshu Ram ji ke vanshaj ..brahmin jaati me hum jane jane ke baad .....sikh guru sahiban ke aadarsho. Manush ki jaat sabe eke pahchan bo..sarv dharm sambhav.vasudev kutumbkam me vishvas manushy jaati ka uthan Ki abhilasha
me.
.thanks..(((((Ajeet pal singh 'shunty baba'jee.12 DEC 2016 Monday 01:25 am... E-mail..baba shunty@ymail.com )))))
Bahut acha
DeleteAap ne mughe Gyan vardhak jaan kariya di..humara purana pariwar azad poonch j&k state ke paandhaa cast ke brahmin sikh sardar he..hamara gotre....shirivats he Jo ki shiri vats rishimuni ji ke vanshaj darshata he...Haridwar (uttrakhand state) ke) pande pt.ghasi ram ji ke pote pt.ji hamare ko Surat, Bombay,up,bihar se azad jammu kashmir akhand bharat ke samay va ab india ka darshate he vanshawali dairy ke adhaar pr..Uttrakhand me paandhaa,pandha,ko upadyay likhte he etihaas kaar...Shiri guru nanak dev ji Jagat guru ji (bedi Kul me janm Lene wale) ko Shiri pandit gopal paandhaa ji ke pass padai education ke liye bheja tha.jammu kashmir,uttrakhand,delhi me Hindu va sikh paandhaa gotre shiri vatse ke log ..rahte he....hamare jammu ke kuch pariwaro.mujjafrabadi(azad jammu kashmir)ab pakistanme kahte the...jb raja badshah shayad orangjeb ne lagan,zaziyakar tax lagaya to hamare purvajo ne bagawat or di or poonch ke dharam shaal area ko se mujjafrabaad me saran li..jb wapis aay to unhe mujjafarabadi bola gaya..late dada makhan singh mujaffrabadi satwari Ki jubani,
ReplyDelete...hamara purana niwas troti dharam shaal poonch india se 6 km dur
Duri pr he azad jammy & kashmir me ..batate he ki troti dharam shaal village ko basane wale hamare for father Dada nidhaan singh paandha ji ko chhoti sarkaar ka d khitaab mila that. Dada daan singh tamby wale lahor univercity se pd ke aay to tambi .chust pajama daal ke aay to unhe tambiwala kaha gaya..dada nand singh ji argi nawis poonch cort raja hari singh dogra raja va azad Hindustan 1940 me Apna residance baba chuke the.(((late dada ishar singh paandhaa ji gandhi nagar jammu,dr.surjit Singh paandhaa gandhi nagar jammu,dr.Manmohan singh paandhaa ji chairman contolmant board ranibag,Chathha airport jammu,late sardar gurbax singh paandhaa s/o dada nand singh ji tabiwala -ex army man 1948-1964 .16 years service (sant ji) 8th milatia bataliyan ab j&k light infantry..jkli..56 apo. Va 1966-67 se dist nainital (udham singh nagar) uttrakhand Ki jubani kahani.. Mere vidwaa nana jee bhai labbu ram jee sharma ne suthrya di bawali,kue,kai Dharm Ethan,va vidhyalay khulway..hamari nano ji inter collage Ki prdhana adhyapak va atyant dharmik parvarti Ki thi.bhai labbu ram ji dina naath jee ,Jo Shiri gurugrath sahib,Shiri Geeta jee ,pavitre kuran,urdu ,arbi farci ,ke gyata unki sikhi sewki aaj bhi jammu va poonch ke village va kai city me he unke vanshaj ved parkash ji va deepak sharma ji he jo bisnessman va farmar he..bhagwan Parshu Ram ji ke vanshaj ..brahmin jaati me hum jane jane ke baad .....sikh guru sahiban ke aadarsho. Manush ki jaat sabe eke pahchan bo..sarv dharm sambhav.vasudev kutumbkam me vishvas manushy jaati ka uthan Ki abhilasha
me.
.thanks..(((((Ajeet pal singh 'shunty baba'jee.12 DEC 2016 Monday 01:25 am... E-mail..baba shunty@ymail.com )))))
thanks for this information.i am from junagadh gujrat. my elders tell that our gotra is VATSAT . May it is vats .our surname is bhatt
ReplyDeleteThanks for your kind information Sir.
ReplyDeleteThank you so much
Thanks for your kind information Sir.
ReplyDeleteThank you so much
Thanks for Information of my gotta and my purwajs. ....(Regards -Rajat Sharma)
ReplyDeleteसर हमलोगो का टायटल राय(roy) है,हमलोग भी वत्स गौत्रिय बगौछिया भुमिहार है ।हमलोगो बगौछिया भुमिहार कहां से आये है, कोई जानकारी हो तो बताएं ।देवघर सारठ,झारखंड
ReplyDeleteThanks for this valuable information. Just wanted to add that my surname is Kamath, I'm Goud SaraswatBrahmin and my gotra is also Vatsya
ReplyDeleteThank you for this valuable information. I am Shantly by caste and my gotra is Vatas. I happy to know my roots.
ReplyDeletesir mai ye jaanna chahta hun ki kya gotra same hone pr vivaah sambhav hai.. hm dono vatsya gotreey payasi hn... halaki hmare parivar aur peedhiyon me koi connection ni h. (ho sakta hai kuchh sadi pahle raha ho kyuki dono payasi hn) .. aise me kya hm ye vivah kar sakte hn
ReplyDeletesir mai ye jaanna chahta hun ki kya gotra same hone pr vivaah sambhav hai.. hm dono vatsya gotreey payasi hn... halaki hmare parivar aur peedhiyon me koi connection ni h. (ho sakta hai kuchh sadi pahle raha ho kyuki dono payasi hn) .. aise me kya hm ye vivah kar sakte hn
ReplyDeleteनेपाल में दाहाल,राणा,लम्साल,रुपाखेति,कुंवर,खराल भी वत्स गोत्रिय है ।
ReplyDeleteYes
DeleteVats is originally a JAAT gotra. Jat is an ethnic group. Some Jats in history become PRIEST some become KING. That's why we Jats and Brahmins and RAJPOOT shares same GOTRA :-)
ReplyDeleteVats is originally a JAAT gotra. Jat is an ethnic group. Some Jats in history become PRIEST some become KING. That's why we Jats and Brahmins and RAJPOOT shares same GOTRA :-)
ReplyDeleteVats is originally a JAAT gotra. Jat is an ethnic group. Some Jats in history become PRIEST some become KING. That's why we Jats and Brahmins and RAJPOOT shares same GOTRA :-)
ReplyDeleteHello sir main payasi hu aur mera gotra vats h....aap payasi ratanmala k bare m bataiye please
ReplyDeleteSir main payasi hu aur mera gotra vats h kya aap payasi ratanmala k bare m bata sakte h
ReplyDeleteChalo think hi h pata to Chala mere gotra ke baare me y knowlage mere Ghar walk ko to nahi thi thanks for give information.yaha city m to itana kuch kiss ko pata nahi hota
ReplyDeleteसादर अभिनन्दन
ReplyDeleteहे भद्र पुरुष, इस ज्ञानरूपी भेट के लिए हम सब कृतार्थ है
आपको सत सत नमन💐💐
सादर अभिनन्दन
ReplyDeleteहे भद्र पुरुष, इस ज्ञानरूपी संलग्न के आभारी है हम सब
आपको सत सत नमन💐💐💐
सादर अभिनन्दन
ReplyDeleteहे भद्र पुरुष, इस ज्ञानरूपी भेट के लिए हम सब कृतार्थ है
आपको सत सत नमन💐💐
सादर अभिनन्दन
ReplyDeleteहे भद्र पुरुष, इस ज्ञानरूपी भेट के लिए हम सब कृतार्थ है
आपको सत सत नमन💐💐
My name sandeep vats pls tell me all friends where is owr kuldevi and kuldevta temple
ReplyDeleteMy name sandeep vats pls tell me all friends where is owr kuldevi and kuldevta temple
ReplyDeleteHi
ReplyDeleteAssam rajya me v vatsa gotra brahman he dahal paribar h
ReplyDeleteHi
ReplyDeleteHi
ReplyDeleteThank you sir for provide us invalueable info I am also vats gotr and live Karnal haryana and not only me there are lots of people who have vats gotr
ReplyDeleteDhanyabad sir ....
ReplyDeleteThank sir
ReplyDeleteश्रीमान जी प्रणाम। मेरे पूर्वज पाकिस्तान के जिला गुजरावाला के रहने वाले थे। हमारा गोत्र वत्स व जाती प्रभाकर है। क्या आप प्रभाकर जाती पर प्रकाश डाल सकते है कि जातिया कैसे बानी। आपका आभारी रहू गा।
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