Saturday, April 22, 2023

 

ब्रह्मर्षि परशुराम का इतिहास

 

कान्यकुब्ज (कन्नौज) नामक नगर में गाधि नामक राजा था| उसे एक अप्सरावत सुंदर कन्या पैदा हुई जिसका नाम सत्यवती था| भृगुनन्दन ऋचीक मुनि ने गाधि राजा से कन्या की याचना की| विष्णुपुराण के अनुसार गाधि ने अति क्रोधी और वृद्ध ब्राह्मण ऋचीक को अपनी पुत्री नहीं देने की इच्छा से कन्याशुल्क रूप में अतिदुर्लभ एक सहस्त्र श्यामकर्ण  श्वेत अश्वों की मांग की हालांकि उस काल में विवाह में कन्या-शुल्क शास्त्रवर्जित था| ऋचीक मुनि वरुण के पास गए और एक श्यामकर्ण वाले सहश्र अश्व मांग लाए जिसे गाधि को देकर उनकी कन्या से विवाह किया| वाल्मीकीयरामायण में कोई शुल्क का जिक्र नहीं है और राजा गाधि ने सहर्ष उस कन्या का विवाह ऋचीक मुनि से कर दिया| विवाहोपरांत भृगु ऋषि आये और अपने पुत्र को सपत्नीक देखकर प्रसन्न हो पुत्रवधू को वर मांगने को कहा| सत्यवती ने अपने और अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की| एवमस्तु कह भृगु जी ने कहा कि तुम्हारी माता पीपल वृक्ष और तुम गूलर वृक्ष की शरण में रहकर  उसका आलिंगन करना तथा तीर्थों के पवित्र जल से स्वयं चरु तैयारकर एक सत्यवती और एक उसकी माता को खाने के लिए दिया| श्रीमद्भागवतपुराणानुसार भृगु ऋषि नहीं बल्कि ऋचीक ने ही चरु एवं वर प्रदान किये| सत्यवती की माता ने यह सोचकर की ऋषि ने अपनी पुत्रवधू के लिए अवश्य ही अच्छे पुत्र के लिए ऐसा किया होगा, उसने पीपल की जगह गूलर का आलिंगन  कर लिया और बेटी के लिए निश्चित चरु को खा लिया एवं उनकी पुत्री को पीपल का आलिंगन और माँ के निमित्त चरु का भक्षण करना पड़ा|

 

बहुत दिनों बाद जब भृगु ऋषि वापस आये तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सब जान लिया| (श्रीमद्भागवत के अनुसार ऋचीक मुनि ने योगबल से सब जान लिया)| उन्होंने अपनी पुत्रवधू से कहा कि तेरी माता ने तुझे धोखा दिया है| अब तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रियों जैसा आचरण वाला होगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणोचित  आचारण वाला होगा| सत्यवती ने अपने स्वसुर भृगु ऋषि से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र ऐसा न हो भले ही मेरा पौत्र ऐसा हो जाये| भृगु ऋषि तथास्तु कह लौट गए| यथासमय सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि मुनि का जन्म हुआ जो बड़े तेजस्वी और प्रतापी थे| कालक्रम से जमदग्नि मुनि ने राजा प्रसेनजित की कन्या रेणुका से विवाह किया जिससे पांच पुत्र हुए जिनमें परशुराम सबसे छोटे थे| परशुराम जी का जन्म वैशाख शुक्लपक्ष द्वितीया को हुआ था| कहीं कहीं परशुराम का जन्म वैशाख शुक्लपक्ष अक्षय त्रितीया को हुआ माना जाता है लेकिन स्कन्धपुराण के वैशाखमाहात्म्य में वर्णित अक्षयतृतीया में इसका कोई जिक्र नहीं है| भाईयों में छोटे होने पर भी परशुराम  गुणों में सबसे बढ़चढ़ कर थे हालांकि चरु प्रभाव से ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रियोचित गुणसम्पन्न थे|

 

एक दिन रेणुका नदी में स्नान करने गई तो राजा चित्ररथ को जलक्रीड़ा करते देख मन से विचलित हो गई| आश्रम में लौटने पर जमदग्नि मुनि ने उसके मानसिक विकार को जान लिया और ब्रह्मतेज से च्युत होने पर उन्हें बहुत धिक्कारा| इतने में उनके चारो पुत्र रुक्मवान, सुषेण, वसु और विश्वावसु आ गए| उन्होंने चारों से अपनी माँ को मार डालने के लिए कहा किन्तु मोहवश उनके चारों पुत्रों ने आज्ञा पालन नहीं किया| मुनि के श्राप से वे जड़बुद्धि हो गए| इतने में कनिष्ठ पुत्र परशुरामजी आ गए| मुनि ने उन्हें भी अपनी पापिनि माता को मारने के लिए कहा| परशुरामजी ने आव देखा न ताव,  तुरंत परशु से अपनी माता का सर काट डाला| जमदग्नि जी ने  प्रसन्न हो वर मांगने के लिए कहा| परशुराम जी ने माता के जीवित होने, उन्हें इस मृत्यु की याद न रहने, भाईयों के स्वस्थ होने, अपने लिए युद्ध में उन्हें कोई परास्त न करने तथा दीर्घायु होने का वर माँगा जिसे जमदग्नि मुनि ने सहर्ष प्रदान किया|

 

क्षत्रिय-विनाश

श्रीमद्भागवतपुराण (९/१५/१४,१५) स्कंध ९, अध्याय १५, श्लोक सं १४,१५ के अनुसार हैहयवंशी तथा अन्य कर्मच्युत, रजो एवं तमोगुणी, आततायी क्षत्रियों के नाश के लिए ही स्वयं विष्णु ने  परशुराम के रूप में छठा अवतार लिया था| ब्रह्मर्षि परशुराम के सामर्थ्य के लिए निम्नलिखित श्लोक रचा गया है:-

अग्रतः चतुरो वेदाः, पृष्ठतः सशरः धनुः|

इदं ब्राह्मः, इदं क्षात्रः, शास्त्रादपि शरादपि||

“मुख में वेद, पीठ पर तरकश, कर में कठिन कुठार विमल;

शाप और शर दोनों ही थे, जिस महान ऋषि के सम्बल| (राष्ट्रकवि दिनकर)

अर्थात् परशुराम जी के समक्ष चारो वेदों का ज्ञान, पीठ पर वाणों से भरा तरकशविद्यमान था|  ब्राह्म और क्षात्र गुण सम्पन्न यह ऋषि शास्त्र से या शस्त्र से हर हालत में विजय पाने में समर्थ थे| इन्होने स्वयं भगवान शंकर से शस्त्र की शिक्षा ली थी और शंकर ने उन्हें अपना एक धनुष उनकी वीरता से प्रसन्न होकर दिया था जिसपर बाण चढ़ाने वाले सिर्फ विष्णु या उनके अवतार ही हो सकते थे| इन्हीं गुणों के कारण इन्हें ब्रह्मक्षत्रिय भी कहते हैं| शास्त्रों के अध्ययन से आभास होता है कि ब्रह्मास्त्र संचालन ज्ञान का एकाधिकार मूलतः परशुराम जी के पास ही था| बाद में उन्होंने ने भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को इसकी शिक्षा दी हालांकि कर्ण की शिक्षा शापवश उसके काम नहीं आई|

एक बार हैहयवंशी कार्तवीर्य का पुत्र अर्जुन जिसे हजार भुजाओं के कारण सहश्रार्जुन भी कहा जाता था, जमदग्नि ऋषि के आश्रम  को नष्ट कर होमधेनु के बछड़े (श्रीमद्भागवत के अनुसार होमधेनु) को ले भागा| सहश्रार्जुन ने रावण को भी बात बात में कैद कर रखा था| परशुरामजी जी ने उस सहश्रार्जुन की भुजाओं को काटकर मार डाला| इससे सहश्रार्जुन के पुत्रों को बहुत क्रोध आया और उन्होंने जमदग्नि जी को ही मार डाला| जब परशुरामजी आश्रम आये तो आग बबूला हो गए और न सिर्फ सहस्रार्जुन के सभी पुत्रो को मार डाला बल्कि उसके सहस्त्र अक्षौहिणी सेना तथा जो भी क्षत्रिय उसका साथ दे रहे थे सबका सफाया कर दिया| इतना ही नहीं, महाभारत के आश्वमेधिकपर्व (संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड पृष्ठ सं ६७७) के अनुसार क्षत्रियों के मारे जाने पर ब्राह्मणों ने उनकी स्त्रियों से नियोगविधि से पुत्र उत्पन्न किये परन्तु उन्हें भी परशुराम जी ने मौत के घाट उतार दिए|  इस तरह हैहयवंश वंश ही नहीं कालक्रम से २१ बार उन्होंने पृथ्वी को आततायी धर्मभ्रष्ट क्षत्रियों से विहीन कर दिया था| तब उनके पित्रिगणों ने उन्हें रोका और पुनः शुचितापूर्वक तपस्या करने की आज्ञा दी|

इस तरह पृथ्वी को २१ बार क्षत्रियविहीन कर उन्होंने समन्तपंचक क्षेत्र में पांच  सरोवर कुण्डों को क्षत्रियों के रक्त से भर दिया और सम्पूर्ण पृथिवी की भूमि कश्यप गोत्रीय ब्राह्मणों को सौंपकर सुदूर दक्षिण महेंद्र पर्वत पर चले गए| यहीं से ब्राह्मणों का वह समुदाय जिसने भूमिप्रवंधन, तथा इसके उपयोग और उपभोग का कार्य सम्भाला, अपने आप को ब्रह्मर्षि परशुराम वंशज या स्वयंभू-ब्रह्मर्षि की उपाधि से अपने आप को विभूषित कर लिया हालांकि परशुराम आजीवन ब्रह्मचारी और अविवाहित थे| इस तरह भूमिहार ब्राह्मणों का अपने आप को ब्रह्मर्षि परशुराम वंशज कहना और कहलवाना कितना तथ्यपरक है, कहने की आवश्यकता नहीं| फिर भी ब्राह्मणों को समय समय पर मिले भूमि-दान की परम्परा अर्वाचीन है|

भूमिहार ब्राह्मण का तार्किक और अकाट्य उद्भव और विकास की जानकारी के लिए मेरा लेख भूमिहार ब्राह्मण का इतिहास, वर्तमान स्थिति और पुनरुद्धार के उपाय को उद्धृत किया जा सकता है जो www.facebook.com/vidyasharmaguljana और हमारे ब्लॉग http://guljanaavillageingayabihar.blogspot.in/ पर भी उपलब्ध है| ज्ञानपिपासु पाठक उसे आसानी से देख सकते हैं|

परशुराम और राम

         परशुराम और राम का साक्षात्कार तीन ग्रंथों यथा वाल्मीकिरामायण, महाभारत और तुलसीकृत रामचरितमानस के अनुसार निम्नलिखित तीन विभिन्न परिस्थितियों में हुआ जो एक दूसरे से भिन्न हैं -

वाल्मीकिरामायण जो इन ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रंथ है, के अनुसार जब महेंद्रगिरि पर परशुराम जी को मिथिला में राम द्वारा शिवधनुष तोड़ने का समाचार मिला तो वे  अपनी त्वरित गमन-शक्ति प्राप्त वरदान के कारण जनकपुर को प्रस्थान कर गए| रास्ते में विवाह के बाद अयोध्या लौटते दशरथ और राम आदि मिले| शिव जी का दूसरा धनुष जो परशुराम जी के पास था उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए उन्होंने राम को  दिया| राम ने प्रत्यंचा चढ़ाकर आपने वाण से परशुराम के तपोबल का नाश कर दिया लेकिन उनके त्वरितगमन शक्ति को नष्ट नहीं किया| राम के विष्णु-अवतार होने से आश्वस्त हो वे वापस महेंद्रगिरि पर्वत पर वापस जाकर पुनः तपोनिष्ट हो गए| 

          महाभारत के वनपर्व के अनुसार महेंद्रगिरि पर  दशरथ के पुत्र रूप विष्णुअवतारी राम की अद्भुत शौर्यगाथा सुनकर परशुराम जी को बड़ा कुतुहल हुआ| इसलिए राम से मिलने और इसकी सत्यता तथा राम के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिए परशुराम जी अयोध्या नगरी पहुंचे| वहाँ पहुंचकर उन्होंने राम से कहा कि अगर तुममें सामर्थ है तो मेरे इस कराल शिव धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाओ जिसे राम ने हंसी-खेल में ही चढ़ा दिया| तब परशुराम जी ने उन्हें एक दिव्य बाण देकर कहा की इसे चढ़ाकर अपने कान तक खींचकर दिखाओ| इस पर राम को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि भृगुनन्दन आप बड़े अभिमानी जान पड़ते हैं|आपने अपने पितामह ऋचीक की कृपा से क्षत्रियों का वधकर यह तेज प्राप्त किया है, इसी से आप मेरा भी तिरष्कार कर रहे हैं| फिर भी मैं आपको दिव्य नेत्र देता हूँ जिससे आप मेरे वास्तविक स्वरूप को देखिये| राम ने उन्हें अपना विष्णु ऐश्वर्य दिखाया जिसमें सारी श्रृष्टि समाहित थी| फिर राम ने वह बाण संधानकर छोड़ दिया जो परशुराम के तेजोबल का नाश कर पुनः राम के पास वापस आ गया| जब परशुराम को कुछ चेत हुआ तो वे  विष्णुअंशधारी राम को प्रणाम कर महेंद्रगिरि पर वापस आ गए और उदास एवं लज्जित रहने लगे| पित्रिगणों ने जब उन्हें तेजहीन देखा तो उन्होंने राम के प्रति परशुराम के व्यवहार की निंदा की| उन्हें पुनः तेजोमय होने के लिए वधूसरकृता नामक नदी में, जिसके किनारे उनके प्रपितामह भृगु ऋषि की  तपस्या करने के कारण वह अति तेजोमय और पवित्र फलदायिनी हो गई थी, स्नान करने को कहा| ऐसा कर परशुराम जी ने अपनी तेजश्विता और अपना सामर्थ पुनः प्राप्त कर लिया|   

          रामचरितमानस जो सबसे नया ग्रंथ है, में तुलसीदास ने तो परशुराम को सीधे जनकपुरी के धनुषयज्ञ में ही पहुंचा दिया जहाँ राम-परशुराम-लक्ष्मण-सम्वाद को अति  नाटकीयता के साथ रोमांचकारी स्थिति में लोकप्रियता की चरम सीमा पर पहुंचा दिया गया| तुलसीदास ने परशुराम की उग्रता, प्रभाव और भयोत्पादकता का वर्णन  निम्नलिखित चौपाई के माध्यम से किया है:-

"भुजबल भूमि भूप बिनु किन्हीं|
बिपुल बार मही देवन दीन्ही||

उपरोक्त सन्दर्भों के आधार पर एक बात बड़ी ही स्पष्टता से कही जा सकती है कि हमारे शास्त्रों में सदा ही तथ्य और कथ्य की भिन्नता रही है जो शास्त्रकारों के संदर्भ-गठन के आधार पर निर्भर करती रही है| वाल्मीकि और तुलसीकृत रामायण में तो ऐसे संदर्भ-वैभिन्य उदाहरणों की बहुलता रही है| इसमें यह कहना कि कौन शास्त्रकार सही है और कौन गलत, यह निरर्थक होगा| हाँ, इससे एक बात स्पष्टता से कही जा सकती है कि शास्त्रों का उदेश्य उदाहरणों के द्वारा  मार्गदर्शन और शिक्षा प्रदान करना होता है न कि सन्दर्भों की सत्यता सिद्ध करना| त्रेतायुगीन राम के समकालीन वाल्मीकि को क्या मालूम था कि द्वापरयुगीन कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास) परशुराम को किस संदर्भ में प्रस्तुत करेंगे और इन दोनों को क्या मालूम कि तुलसीदास नानापुराणनिगमागमसम्मतंयत्, रामायणोंनिगधितम् क्वचिदन्यतोऽपि कहकर परशुराम का महिमामंडन भुजबल भूमि  भूप बिनु किन्हीं| बिपुल बार मही देवन दीन्हीं के रूप में करेंगे|

इस तरह हम भूमिहार ब्राह्मण तार्किक या अतार्किक कारणों से अपने आपको आजन्म ब्रह्मचारी परशुराम के वंशज और ब्रह्मर्षिनंदन के रूप में स्थापित कर बैठे हालांकि हमे अपने आपको ब्राह्मण कहने में कहीं-कहीं हिचकिचाहट होती है| मानो या न मानो हम हैं तो ब्राह्मण ही| जितनी जल्दी हमारा समाज इस वास्तविकता को स्वीकारेगा उतनी ही जल्दी हमारा दम्भ समाप्त होगा और हम उत्तरोत्तर उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ होंगे| साथ ही जबतक हम परशुराम द्वारा पृथ्वी को २१ बार क्षत्रियविहीन करने की कथा पर झूठा गर्व प्रदर्शन करते रहेंगे तबतक न सिर्फ क्षत्रियों की इर्ष्या वरण द्वेष और अप्रत्यक्ष शत्रुता का आघात भी झेलते रहेंगे| ब्रह्मर्षि समाज कहलाने में कोई दोष या आपत्ति नहीं लेकिन अविवाहित, नैष्ठिक ब्रह्मचारी परशुराम  की संतान (ब्रह्मर्षि नंदन)?? खासकर हमारी युवा पीढ़ी को इसपर मनन करना होगा|

वर्तमानकाल में परशुराम मंदिर हिमाचल प्रदेश के नहान शहर से ४० किलोमीटर दूर गिरि और जलाल नदी के संगम पर सिरमौर जिला में स्थित है| वहीं पर रेणुका झील भी है जहाँ कार्तिक शुक्ल एकादशी को बहुत बड़ा मेला का आयोजन होता है| भारत में आठ स्थान परशुराम क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं जिनका नाम निम्नलिखित है:-

१.उडुपी, २सुब्रमण्यम, ३. कोल्लूर, ४.शंकरनारायण, ५.कोटेश्वर, ६.कुम्बासी,  ७.गोकर्ण और ८.परशुराम कुण्ड, अरुणाचल प्रदेश|

 

(ले.कर्नल विद्या शर्मा, से.नि.)

गया, १५ जनवरी २०१५